The Strange Story of Mathura:-यह कथा मथुरा की रूपणिका नाम की एक वेश्या, उसकी कुटनी मां मकरदंष्ट्रा और एक निर्धन ब्राह्मण लौहजंघ की है, जिसमें प्रेम, छल, प्रतिशोध और अंततः एक अप्रत्याशित सफलता की कहानी बुनी हुई है।
प्रेम की अप्रत्याशित शुरुआत
मथुरा नगरी में रूपणिका नाम की एक वेश्या रहती थी, जिसकी मां मकरदंष्ट्रा अत्यंत कुरूप और कुबड़ी होने के साथ-साथ कुटनी का कार्य भी करती थी। एक बार रूपणिका मंदिर में पूजा करने गई, जहाँ उसकी नज़र एक युवक लौहजंघ पर पड़ी। दोनों एक-दूसरे को देखते ही आसक्त हो गए। रूपणिका ने अपनी सेविका के माध्यम से लौहजंघ को उसी रात अपने घर आमंत्रित किया। लौहजंघ, जो एक निर्धन ब्राह्मण था, पहले तो हिचकिचाया, क्योंकि रूपणिका केवल धनवानों से संबंध रखती थी। किंतु, जब उसे बताया गया कि रूपणिका को धन की आवश्यकता नहीं है, तो वह जाने को तैयार हो गया।
निश्चित समय पर लौहजंघ रूपणिका के घर पहुँच गया। मकरदंष्ट्रा को यह देखकर आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसने अपनी बेटी को मंदिर भेजा था ताकि वह धनवानों से संबंध बना सके। रूपणिका प्रसन्नता के साथ लौहजंघ को अपने शयनकक्ष में ले गई, अपनी माँ की कोई परवाह न की। लौहजंघ के साथ सहवास करने से रूपणिका को अपार आनंद मिला। उसने अन्य युवकों से संबंध तोड़ लिए और केवल लौहजंघ की होकर रहने लगी। लौहजंघ भी आनंदपूर्वक उसी के घर में रहने लगा।
मकरदंष्ट्रा का षडयंत्र और लौहजंघ का निष्कासन
अपनी बेटी के इस व्यवहार से मकरदंष्ट्रा बहुत दुखी हुई। वह नगर-भर की वेश्याओं को प्रशिक्षण देती थी, लेकिन उसकी अपनी बेटी उसके वश से बाहर थी। एक दिन उसने रूपणिका से लौहजंघ को छोड़ने के लिए कहा, यह तर्क देते हुए कि वेश्या और निर्धन का प्रेम-बंधन संभव नहीं है और यह वेश्यावृत्ति की चमक को नष्ट कर देता है। इस पर रूपणिका को बड़ा गुस्सा आया और उसने माँ को भविष्य में ऐसी बातें न करने की चेतावनी दी, यह कहते हुए कि वह लौहजंघ से प्राणों से भी अधिक प्रेम करती है।
अपनी बेटी को विद्रोह पर उतरी हुई जानकर मकरदंष्ट्रा मन मसोसकर रह गई और लौहजंघ को घर से निकालने की योजना बनाने लगी। कुछ दिनों बाद, उसने एक राजकुमार को सैनिकों के साथ जाते देखा। उसने राजकुमार से लौहजंघ को निकालने की प्रार्थना की और बदले में अपनी बेटी के साथ विहार का प्रस्ताव दिया। राजकुमार ने प्रजा की रक्षा अपना कर्तव्य समझकर यह बात स्वीकार कर ली। जब राजकुमार रूपणिका के घर पहुँचा, तो रूपणिका मंदिर गई हुई थी और लौहजंघ भी घर पर नहीं था। लौटने पर, राजकुमार के सैनिकों ने लौहजंघ को पीटना शुरू कर दिया। जान बचाकर किसी तरह वह नाले में गिरा और वहाँ से भाग निकला। लौटने पर रूपणिका को जब घर की दशा और घटना के बारे में पता चला तो वह बहुत दुखी हुई। राजकुमार को भी अपनी गलती का एहसास हुआ और वह वहाँ से चला गया।
लौहजंघ की अद्भुत यात्रा और लंका आगमन
लौहजंघ समझ गया कि यह सब मकरदंष्ट्रा की करतूत है। क्रोधित होने के बावजूद वह विवश था, इसलिए उसने किसी तीर्थ में जाकर आत्मघात करने का विचार किया। तपती दुपहरी में चलते हुए, उसे एक मरे हुए हाथी की खाल दिखाई दी, जिसका मांस गीदड़ों ने खा लिया था। थकान और गर्मी से बेहाल होकर, लौहजंघ उस खाल के अंदर आराम करने के लिए बैठ गया और उसे तुरंत नींद आ गई।
उसे कुछ भी पता नहीं चला कि कब भयंकर वर्षा हुई और वह खाल के साथ नदियों में बहता हुआ समुद्र में जा पहुँचा। समुद्र में बहते हुए उसे एक गरुड़ ने मांस का पिंड समझकर झपट लिया और एक टापू पर ले गया। वहाँ गरुड़ ने खाल को उधेड़ा, तो उसमें मांस की जगह एक जीवित मनुष्य को देखकर उसे वहीं छोड़कर उड़ गया। नींद खुलने पर, लौहजंघ ने खुद को एक अजीब जगह पर पाया। तभी उसकी दृष्टि समुद्र तट पर खड़े दो राक्षसों पर पड़ी, जो उसे भयभीत होकर देख रहे थे।
राम के लंका पर आक्रमण और हनुमान के लंकादहन की घटनाओं से परिचित होने के कारण, उन राक्षसों को एक और मनुष्य के लंका आने से बड़ा डर लगा। उन्होंने तुरंत राजा विभीषण को सूचित किया। राम की घटना से विभीषण जानता था कि मनुष्य जाति प्रभावशाली होती है, अतः वह चिंतित हुआ और अपने दूतों को उस मानव को आदर सहित लाने का आदेश दिया। लौहजंघ दूत के साथ विभीषण की सभा में पहुँचा।
लंका में सम्मान और देवतुल्य वापसी
विभीषण ने ब्राह्मण समझकर लौहजंघ का उचित सत्कार किया और उसका परिचय पूछा। लौहजंघ ने झूठ बोला कि वह मथुरा का एक निर्धन ब्राह्मण है, जिसने भगवान विष्णु की तपस्या की थी और उन्होंने ही उसे विभीषण के पास धन मांगने के लिए भेजा है। विभीषण ने लौहजंघ को कोई महान ब्राह्मण समझकर उसकी बातों पर विश्वास कर लिया और उसे रहने की सुंदर व्यवस्था कर दी। लौहजंघ सुखपूर्वक लंका में रहने लगा।
विभीषण ने लौहजंघ को एक गरुड़ दिया और उसे उस पर सवारी करने तथा उसे नियंत्रित करने का अभ्यास करने को कहा, ताकि वह उस पर बैठकर वापस मथुरा जा सके। लौहजंघ ने लंका को काष्ठ का बना देखकर विभीषण से इसका कारण पूछा। विभीषण ने उसे गरुड़ की कहानी सुनाई, कैसे उसने नागों को अमृत देने के लिए विशाल जीवों को पकड़कर कल्पवृक्ष की डाल पर बैठकर खाया, और कैसे वह डाल टूटकर लंका के स्थान पर गिरी, जिस पर लंका का निर्माण हुआ।
कुछ दिनों में लौहजंघ को गरुड़ की सवारी का अभ्यास हो गया। तब विभीषण ने उसे पर्याप्त धन और मूल्यवान रत्न दिए, साथ ही मथुरा के स्वामी के लिए शंख, चक्र, गदा और पद्म भी भेजे। यह सब लेकर लौहजंघ गरुड़ पर बैठकर मथुरा की ओर उड़ चला और शीघ्र ही मथुरा पहुँच गया।
मथुरा में, लौहजंघ ने गरुड़ को एक बौद्ध विहार में उतारा, विभीषण से मिले धन को जमीन में गाड़ दिया, और गरुड़ को एक खूंटे से बांध दिया। उसने एक रत्न बेचकर अपनी दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ और श्रृंगार सामग्री खरीदी। बौद्ध विहार में स्नान, भोजन के बाद, वह सुंदर वस्त्र पहनकर तैयार हो गया। सायंकाल में, वह गरुड़ पर बैठकर रूपणिका की छत पर जा पहुँचा और विशेष प्रकार की आवाज की। जब रूपणिका उसे देखने बाहर आई, तो लौहजंघ शंख, चक्र आदि धारण किए हुए भगवान विष्णु के वेश में था। रूपणिका ने उसे भगवान विष्णु ही समझा और प्रणाम करते हुए उसे अपने कक्ष में ले गई। कुछ समय बिताने के बाद लौहजंघ अपने निवास स्थान पर लौट गया।
प्रतिशोध और लौहजंघ की विजय
रूपणिका को अपने भाग्य पर बड़ा गर्व हुआ कि वह भगवान की प्रेमिका बन गई है और अब उसे मनुष्यों से बात भी नहीं करनी चाहिए, इसलिए उसने लोगों से बोलना छोड़ दिया और परदे में रहने लगी। उसकी माँ मकरदंष्ट्रा को आश्चर्य हुआ और पूछने पर रूपणिका ने उसे सारी बात बता दी। माँ को पहले विश्वास नहीं हुआ, किंतु जब रात्रि में लौहजंघ गरुड़ पर बैठकर पुनः आया, तो उसने स्वयं देखकर विश्वास कर लिया।
अगली सुबह, मकरदंष्ट्रा ने रूपणिका से कहा कि वह भी देवी बन गई है और अपनी माँ को स्वर्ग भेजने के लिए भगवान से सिफारिश करे। रात्रि में लौहजंघ के आने पर मकरदंष्ट्रा ने उससे भी यही प्रार्थना की। इस पर लौहजंघ ने रूपणिका से कहा कि उसकी माँ पापी है और इस शरीर से स्वर्ग जाना संभव नहीं। उसने सलाह दी कि एकादशी को स्वर्गद्वार खुलने पर शिव के गण प्रवेश करते हैं, और यदि उसकी माँ शिव गणों का वेश बना ले तो उसे भी प्रवेश मिल सकता है। इसके लिए उसने बताया कि उसका सिर पांच जगह से मुंडवाकर पांच चोटियां रखनी होंगी, गले में हड्डियों की माला पहननी होगी, तथा आधे शरीर में काजल और आधे में सिंदूर पोतना होगा।
रूपणिका ने यह उपाय अपनी माँ को बताया, जो ऐसा करने के लिए सहमत हो गई। एकादशी के दिन, उसने नाई बुलवाकर लौहजंघ के बताए अनुसार सिर मुंडवाया और तैयार हो गई। रात्रि में लौhजंघ आया, रूपणिका के साथ रमण किया, और फिर जाते समय मकरदंष्ट्रा को अपने साथ ले गया।
लौहजंघ ने मकरदंष्ट्रा को गरुड़ पर बैठाकर उड़ा, और मार्ग में चक्र के चिन्ह वाले पत्थरों के खंभों के पास उसे एक खंभे पर बिठा दिया। उसने कहा, “मैं शिव के गणों के पास जाता हूं और तुम्हें स्वर्ग में प्रवेश दिलाने का प्रयत्न करता हूं, तब तक तुम मेरी यहीं प्रतीक्षा करो।” बुढ़िया कुटनी को वहाँ बैठाकर लौहजंघ उड़ गया। आगे एक मंदिर में रात्रि जागरण और कीर्तन चल रहा था। लौहजंघ ने आकाश से ही उनसे कहा, “भक्तो! आज तुम पर महाविनाशक महामारी गिरने की संभावना है। उससे बचने का केवल एक ही उपाय है कि सब मिलकर भगवान का भजन करो।” इसके बाद वह अपने निवास पर जाकर गरुड़ को बांधकर और भगवान का वेश उतारकर स्वयं भी कीर्तन करने वालों में जा मिला।
खंभे पर बैठी हुई कुटनी थक गई और सोचने लगी कि भगवान क्यों नहीं आए। थकने से वह कभी भी नीचे गिर सकती थी, इसलिए वह चिल्लाने लगी, “अरे-अरे! मैं गिर रही हूं, मुझे बचाओ…” कीर्तन करते लोगों ने उसकी चिल्लाहट को महाविनाशक महामारी समझा और बोले, “नहीं-नहीं, मत गिरो!” महामारी न गिर जाए, इस भय से मथुरा के लोग सारी रात भयभीत रहे। सुबह जब राजा और प्रजा ने उस खंभे पर कुटनी को बैठा पाया, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उसे पहचानकर लोग अपनी हंसी रोक न पाए।
इस सूचना के मिलने पर रूपणिका भी वहाँ आई। अपनी माँ को इस स्थिति में देखकर वह आश्चर्य में डूब गई। किसी प्रकार कुटनी को खंभे से नीचे उतारा गया। पूछने पर उसने अपने साथ बीती सारी घटना लोगों को कह सुनाई। लोगों ने इसे एक सिद्ध पुरुष द्वारा किया गया मजाक समझा और कहा, “इस कुटनी ने कई युवकों को ठगा है। चलो, आज कोई इसे ठगने वाला भी मिल गया। निश्चय ही वह कोई पहुँचा हुआ व्यक्ति होगा।”
इस घटना से राजा का भी अच्छा मनोविनोद हुआ, अतः उसने घोषणा कर दी कि इस कुटनी को दंड देने वाला उसके सामने आ जाए और उसे सम्मानित किया जाएगा। घोषणा होने पर लौहजंघ राजा के सामने आया। उसने विभीषण द्वारा दिए शंख, चक्र आदि उपहार भी राजा को सौंप दिए।
इसके बाद लौहजंघ का सम्मान किया गया और उसकी शोभायात्रा निकाली गई। चारों ओर उसकी चर्चा होने लगी। राजा ने रूपणिका को वेश्यावृत्ति से मुक्त कर दिया। लौहजंघ ने कुटनी से अपने अपमान का बदला ले लिया और फिर वह सुखी एवं समृद्ध जीवन बिताने लगा।
readmore:A mixture of sand and sugar story|रेत और चीनी का मिश्रण